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निखिल कुमार अंजान

Classics

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निखिल कुमार अंजान

Classics

माँ के हाथ की रोटी

माँ के हाथ की रोटी

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आजकल रोटी में स्वाद नहीं आ रहा है

मिस कर रहा हूँ पर याद नहीं आ रहा है

हाँ वही आटा है और वही चूल्हा है

तो क्यों लग रहा है शायद तू कुछ भूला है।


मांडा आटा और लोई बनाई

टेढ़ी मेढ़ी बेली और तवे पर की सिकाई

आज हमने खुद रोटी बनाई

हाथ जला तो मुँह से उई माँ की आवाज आई।


माँ शब्द निकलते ही पूरी बात समझ आई

माँ के हाथ की रोटी की याद आई

माँ की ममता और उसमे लगा उनका पसीना

ऐसा स्वाद मिलेगा कहीं ना।


जितने प्रेम से बनाती थी

उतनी ही मिन्नत कर खिलाती थी

खुद भूखी रहकर उसको मेरी

भूख की चिंता सताती थी।


माँ मेरी मुझको अपने हाथों से खिलाती थी

माँ मेरी अपने पसीने से सींच कर

रोटी को लावण्य बनाती थी

उसके एक कौर से आत्मा तृप्त हो जाती थी।


वो रोटी नहीं थाली में अपना प्रेम परोस के लाती थी।


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