माचिस
माचिस
औंधी पड़ी ,
माचिस की डिबिया
सिसक रही थी
कर रही थी कुछ,
खुद से बड़ बड़
मैं थोड़ा रुका,
लगी कुछ गड़ बड़
उठाया, की कुछ बात
खोल दिये उसने,
सारे के सारे जज़्बात
कहने लगी,
" बरसो से कर रही हूं,
समाज की सेवा
ना देखा गरीब, ना अमीर
सब की सेवा में मेरा ज़मीर
सब ने किया मुझे,
हर जगह नंगा
धर्म ठेकेदारों ने धर्म के नाम,
भड़काया दंगा
कराकर मुझे नंगा, लगाई आग
खून का प्यासा, समाज हुआ नंगा
स्टोव्ह से जोड़कर मेरा नाता,
हुआ कलंकित, सास बहू का नाता
साजिश में मुझे किया शामिल,
कहीं जली झोंपड़ी, कहीं जला मील ।
फिर भी मैं शांत,
क्योंकि..
मंदिर की पूजा में लिया मुझे साथ"
फिर मैंने पूछा..
" नाराजी की क्या बात.."
फिर बोली,
" नाराजी की हैं बात
जिनकी नहीं थी औकात,
सामने मेरे, बढ़ी औकात।
आसमां छूने लगे भाव,
चारों तरफ, महंगाई की आग।
सबके भाव बढ़े,
लेकिन मेरे...
सालो से हैं,
सोलह आने पर अड़े
फिर, ना रहूं नाराज तो क्या !!"
नाराजी उसकी, आयी समझ
रखकर कोने, दूर हुआ दो गज़
मन में कहा..
" दर्द ऐ दास्ताँ चापलूस हमेशा आगे बढ़े,
आग लगाने वाले हैं वही के वही खड़े।