छठीं मंजिल
छठीं मंजिल
पहली मंजिल का अफसर,
अक्सर लेता ऑफिस सर।
काम का रहता तीनकारा,
रहता हमेशा थकाहारा।
कहता कभी झुंझलाकर,
"क्या सब काम हैं,
मेरी ही जीम्मेदारी !
क्या करता हैं,
दूसरे मंजिल का मॅनेजर ?
मिटींग पर मिटींग दिनभर
क्या. . क्या.. हमें नही,
परिवार और घर ? "
प्रश्न उसे अपने मन में,
बहुत बार खलता।
दूसरी मंजिल के मॅनेजर को,
मन ही मन जलता।
फिर बना वह मैनेजर,
शिप्ट हुवा दुसरी मंजिल पर।
बदले बदले से लगे,
उसके तेवर।
दो Dependent थे,
अधिकार के निचे।
खुश था भीतर ही भीतर।
लेकिन..... लेकिन .....
लगता तब मजबुर,
जब तीसरी मंजिल का,
Voice President
करता विदेश के टुर।
वह उसे खलता,
हर किसी को बोलता।
" हमें हैं काम की सजा .
साहब करते विदेश में मजा। "
फिर उसके भी मजे का,
आया वह एक दिन।
तीसरी मंजिल की कुरसी पर,
हुआ आसिन।
होने लगा दील में,
धीन ... ताक ... धीन।
विदेश के टुर होने लगे,
आयें एक दिन।
फिर भी मन रहता उदासीन।
चौथे मंजिल पर पीठासीन,
President पूछता,
टारगेट आयें दिन।
टारगेट का पूछना,
उसे बड़ा खलता।
और फिर वह बोलता,
" साहब का क्या ?
टारगेट हैं बोलना !!
पता नहीं हैं उन्हें,
टारगेट के लिए,
कितने पापड़ पड़ता बेलना।
उनका क्या ?
आओं,बैंठो,मिटिंग करों ...
बस्, एक बार हमें मिले मौका,
देखों कैसे लगाता चौका - छक्का।"
मिला फिर एक दिन,
चौथे मंजिल का मौका।
मिलें पुरे एक कंपनी के अधिकार।
काम भी थे नाना प्रकार।
निचे की तीन मंजिल भी थी,
आधिकार के निचे।
मारने लगे अपने अधिकार का,
छक्का कभी चौका।
सब कुछ था मन मुताबीत।
चल भी रहा था,
सब All is well
लेकिन ... लेकिन ...
पाँचवी मंजिल का MD,
खेलने लगा अपना खेल।
बार बार बजाने लगा,
मोबाईल की बेल।
हर काम में देने लगा,
कुछ ज्यादा दखल।
नहीं समझ आ रहा था,
दखल का हल।
दखल का हल थी,
MD की कुरसी।
फिर भगवान की,
कृपा एक दिन बरसी,
मिल गयी भाया को,
MD की कुरसी।
दमदार थी कुर्सी,
दमदार थी केबिन।
मन में लड्डू फुटे।
दिल करें ताक. . धिन. .
केबिन में चारों तरफ,
ग्रुप कंपनीयों के डिसप्ले।
समझ समझ से समझ रहें,
यह निर्णय लें की,वह ले।
चल रही उधेड़बुन सारी।
सब कुछ तो चल रहा सही,
लेकिन ... लेकिन ...
सुई आकर अटकती वहीं,
जब जाना पड़ता था,
छठी मंजिल पर,
लियें हुए निर्णय पर,
लेने को सहीं।
वह उसे मन में खलता।
CHAIRMAN सहीं करते हुए,
कुछ ना कुछ बोलता।
तब उसका मन,
CHAIRMAN की कुरसी को,
देखकर जब डोलता।
और मन ही मन बोलता।
"काश ... ! !
यह मुझे अगर मिल जायें।
तो जिंदगी के सब अरमान,
पुरे हो जायें। "
हुये फिर एकदिन,
दिल के अरमान पुरे।
दिन में सात बार लियें,
छठी मंजिल के फेरे।
दिल करें हिप हिप हुर्रे।
छत पर जाकर देखें,
निचे के प्यारे नज़ारे।
फिर हुये कुरसी पर आसिन।
व्यस्तता से भरा,
रहने लगा दिन।
दिल भी न करें,
अब धिन ताक धिन।
लॉस -प्रोफिट -गुना - भागा कार।
ना जाने टॅक्स के,
कितने प्रकार।
जो लग रहा था कुछ आसान।
आयें दिन उठने लगा,
सर पर आसमान।
बार बार गरम होने लगा सर,
अपने से खुश दिखने लगा,
पहले मंजिल का अफसर।
मिलें जीवन में,
आपको यह सब अवसर।
ना छोड़ना,
बस् .....
" खुला आसमां,
खुला समंदर। "