लफ्जों की दास्तान
लफ्जों की दास्तान
लफ़्ज़ थोड़े से बाकी है तो अपनी बात कह दूँ ।
मै तो प्यार करता हूँ उनसे वो चाहते हैं रहने दूँ।।
तो ठीक है मैं चला तेरी महफ़िल छोड़कर ।
किसी और को अपने सामने कैसे कहने दूँ।।
तेरे सामने न रहूँगा तो मुझे सुकून होगा ।
पर आंसूओं को तेरे सामने कैसे बहने दूँ।।
अगर ऐसा हुआ तो टूट जायेगा तेरा दिल ।
मगर मैं अपने जीते जी ऐसा कैसे होने दूँ।।
चलो मैंने आज आज़ाद किया इश्क का परिन्दा ।
अपनी इज़्ज़त आपकी नजर में कैसे खोने दूँ।।
मुझे पता है आज भी तुम मजबूर हो पर मगरूर हो।
तुमने जरा भी नही सोचा श्री को खुद से दूर कैसे होने दूँ।।
हाँ लेकिन मैंने अब तुम्हें एकदम से भूला दिया ।
ऐ झूठा ख्याल अब अपने दिल में कैसे रहने दूँ।।
और आज जब मिले हो कई सालों बाद मुझे ।
तो चाहती हो आज तुम्हारे शिकायतों को रहने दूँ।।
हाँ जी लफ्ज़ थोड़े से ही बाकी थे जीवन के मेरे ।
अब तो तुम ही बताओ, बिना कहे कैसे रहने दूँ।।