लम्हा
लम्हा
हर उस वक़्त की ख्वाहिशों में,
लम्हा यूँ बुना-सा है,
की हर काफिरों की बस्ती में,
शामिल कोई अपना-सा है।
डर लगता है किसी मोड़ पे,
मिल ना जाए कोई यूँ,
की फिर बन जाए उस,
टकरार में अधूरा लम्हा यूँ।
हर उस वक़्त की ख्वाहिशों में,
लम्हा यूँ बुना-सा है,
की हर काफिरों की बस्ती में,
शामिल कोई अपना-सा है।
डर लगता है किसी मोड़ पे,
मिल ना जाए कोई यूँ,
की फिर बन जाए उस,
टकरार में अधूरा लम्हा यूँ।