अब रुक भी जाओ
अब रुक भी जाओ
अब रुक भी जाओ
कब से पुकार रही हूँ
सुन भी लो दो घड़ी
कुछ कहना है
कभी अपना हाल
भी पूछा है
जैसे औरों से पूछती हो
समय से खाया की नहीं
गर्म पानी पिया की नहीं
काम बना की नहीं
कोई मुश्किल तो नहीं
सबकी जरूरत का सामान
बनती हो कभी अपनी भी
ख्वाहिश पूरी होती की नहीं
निःसंकोच दौड़ लगाती हो
कभी अपनी धड़कन सुनी की नहीं
कभी सोचा भी अपना थके पैरो को
तेल की मालिश का उपहार दे दूँ
या सर के दर्द को प्यार से सहला दूँ
मुझे पता है तुम्हें मीठे बोल
पसंद है उनसे जिन्हें
तुम्हारा दुःख नहीं दिखता
पर तुम चुप्पी साधे बैठी हो
पलटकर सबक सिखाने
की कसम क्या खायी कभी
अरे सुनो न ... काम का कोई अंत नहीं
उनके लिए जो सिर्फ
तुम्हारी कमियाँ बताते है
भरी आँखों से मान लेती हो
हर एक चुभने वाली बात
कभी दृढ़ होकर
खुद पर अभिमान किया कभी
कभी शीशे में चेहरा देखकर
मुस्कुराना तो भूल ही गयी
तुम्हें दिखती तो केवल
झुरियाँ, धब्बे और सफ़ेद बाल
कभी आराम से
चाय की चुस्की ली तुमने
रुको न ज़रा
अब तो सांसें भी
छोटी हो गयी
इतना मत चलो
जिनको तुमसे कोई
मतलब नहीं
कुछ पल ख़ुशी से
जीने का हक़ जताया कभी
अब अपने आप को समेटो
कभी खुद से भी मिल लो
प्यार से मुझे गले लगा लो।