घर
घर
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रूठी हुई ज़िंदगी मैं एक पल हमेशा यादगार बन जाता है,
मुश्क़िल चाहें कितनी भी बड़ी हों ,कोई तो याद आता है।
थक के जब घर जाऊ तो ,देखके उसको सब भूल जाता हूँ,
थोड़ीं डाँट फटकार मैं फि रसे जीना सीख जाता हूँ।
आगे आने वाले सहर की तरफ़ जब भी कदम बढ़ाता हूँ,
उसको उदास देखके थोड़ा बेचैन हो जाता हूँ।
फिर मिलने की ख्वाहिश में वक़्त यूहीं गुज़र जाता हैं,
एक बार फिर वहीं एहसास के साथ मैं घर को लौट जाता हूँ॥
