मुखिया
मुखिया
वो पुरूष
जो मुखिया है
असल मे
घर के
अन्तस् का वह
काष्ठ है
जिस पर सबके
आवेग किसी
कुल्हाड़ी की तरह
बे तरतीब और
मौके बे मौके
पड़ते हैं।
हर प्रहार से
फटती रहती हैं,
चिरती रहती हैं उसकी
कोमल भावना,
उसकी आकांक्षा और
उम्मीदें ,सपने
बुरी तरह।
लेकिन वह
मौन रहता हुआ
हमेशा सहता रहता है
मुस्कराता हुआ
आश्वाशन देता है
चोट के बाद भी
सबको उसी तरह
"मैं हूँ ना!"
मुझे उसका
यूँ सहना और बने रहना
बाहर भीतर से
एकनिष्ठ मजबूत
अपनी धरोहर के लिए
प्रेरित करता है
उसके साथ मिलकर
हो जाना उसके
जैसा बाहर
भीतर से।
पर उसके लिए
छा भी जाती हूँ
बीच बीच मे उस पर
ममत्व की छांव की तरह
फैल जाती हूँ किसी
शीतल बेल की तरह
अपनी
नन्ही कल्पनाओं
के फ़ूलों संग,
मरहम का भाव
लिये।
जानती मानती हूँ
उसकी महानता और यह भी
कि इस उदात्त प्रकृति के कारण
उसकी स्तिथि ऐसी ही
रहेगी हमेशा
क्योंकि वो जन्म से सीखता आया है
भविष्य हर रिश्ते का
निर्भर है उसी पर
वो मानता है कि
उस से जुड़ा हर सम्बन्ध
उसके जन्म को पोषित
करती गर्भनाल की
जमीन से ही निकला है।
वो जमीन
जो हर सम्बन्ध
के अस्तित्व का
केंद्र है।