लौट जा मुसाफ़िर अपनी गाँव --
लौट जा मुसाफ़िर अपनी गाँव --
धूप चढ़ रही है ! जरा ठहर जा वो मुसाफ़िर!
बैठ जा कुछ पल ठंडी छाँव में ।
कुछ पल बिताकर चले जाना फिर तुम अपनी गाँव में ।
पर यहाँ वो आरामदायक समीर कहाँ तुम्हें मिलेगी ?
यहाँ तो है तो दमघोंटू बदन को बेधने वाली मीठा जहर ! मगर नाम उसका शीतलक है !
मेरे पास उपहार ही कहाँ कुछ जो तुझे मैं भेंट कर सकूँ !
तुम तो रोज अमूल्य, अमृत- तुल्य उपहार प्रकृति से पाते हो ।
यहाँ तो बड़े - बड़े साहबों के बड़े - बड़े बंगले हैं !
बोझ उनपर इतना लदी हुई मानो न जाने कौन घर हैं ? कौन जंगलें हैं ?
यहाँ तुम्हारे गाँव जैसा थोड़े ही कोई मधुशाला है !
यहाँ तो पग - पग पर दिखती विष की प्याला है ।
व्यर्थ ही मैं तुझे रूकने को बोल रहा हूँ !
रूआँसे दिल से तेरे लिए विदा संदेश खोल रहा हूँ ।
लौट जा अपनी गाँव में वो मुसाफिर!
यहाँ प्रतिपल- प्रतिक्षण घुटता जीवन है ।
जहर भरी यहाँ की हवा ,पानी दूषित यहाँ कण -कण है ।
लौट जा वो मुसाफिर!
फिलहाल कुछ पल धूप ही सही ,पर आगे छाँव- ही - छाँव है !
पुकार रहा तुझे वो अपना आशियां ,पुकार रहा तुझे तेरा अपना गाँव है।