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Kusum Joshi

Tragedy

5.0  

Kusum Joshi

Tragedy

क्यों ढूँढनी पड़ती मुझे जिंदगी

क्यों ढूँढनी पड़ती मुझे जिंदगी

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रोज घूम घूम हर घर और गली,

क्यों ढूँढनी पड़ती मुझे जिंदगी,

चाहता हूं मैं भी पढूं और लिखूं,

सबकी तरह मैं भी सपने जियूं,

चाहता हूं हो पूरी हर ज़िद मेरी,

पर क्यों ढूँढनी पड़ती मुझे जिंदगी।


हर सुबह जगूं इसी ख़्वाब को लिए,

आज मैं जियूंगा अपने सपनों के लिए,

आवाज़ एक सुन कदम रुक जाते हैं,

सब ख्वाब मेरे कांच समां टूट जाते हैं,

उम्मीद की कोई किरण दिखती नहीं कहीं,

क्यों ढूँढनी पड़ती मुझे जिंदगी।


कहता है समाज मुझे अधिकार हैं नहीं,

नर नहीं नारी नहीं अभिशाप मैं कोई,

पिछले जन्म के कर्म की सज़ा मिली मुझे,

इसलिये मेरे लिए तिरस्कार ही सही,

चाहता हूं तोड़ दूं ये बंधन सभी,

पर क्यों ढूँढनी पड़ती मुझे जिंदगी।


चीख चीख के कहूँ इंसान मैं भी हूं,

या ईश्वर के पास जा के आज मैं लड़ लूं,

क्यों हाथ ये दिए तालियों के लिए,

जीवन ऐसा क्यों दिया गालियों के लिए,

अपूर्ण जब बनाया देते दिल भी नहीं,

ना ढूँढनी पड़ती मुझे जिंदगी।


जन्म से ही सब सदा मैं खोता गया,

मां-बाप ना कभी परिवार ही मिला,

सपने ही थे मेरे उनको भी छीनकर,

समाज ने कैसा ये इंसाफ़ कर लिया,

भटकता रहा मैं हर घर और गली

लेकिन नहीं मिली मुझे जिंदगी।।


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