कविता
कविता
जिंदगानी की दुश्वारियाँ बढ़ने लगी हैं
जबसे निगाहों को निगाहें पढ़ने लगी हैं ,
अब ज़ुबान का रहा है काम न कोई
दिल की मुलाकात धड़कनो से होने लगी है ,
खोये -खोये से रहते हैं ख्यालों में तेरे
अब तो खुद से भी मोहब्बत होने लगी है ,
सुबह की खबर न शाम का ख्याल कोई
हर घड़ी तेरे इंतजार में जो गुजरने लगी है ,
तन्हाई में जमती है महफ़िल हंसी की
महफ़िल में भी तन्हाई डसने जो लगी है

