पीड़ा
पीड़ा
मेरी गुस्ताखी
काबिले माफी नहीं होती
वैसे ऐसा नहीं
कि मर्दों से
गलती नहीं होती।
मैं स्त्री हूँ न
सहनशक्ति का
समुद्र है मुझमें
वैसे एक
दुनियाँ आज भी
पूर्णतः का
खिताब नहीं
देती।
करके समर्पण
तन और मन भी
फिर भी
स्त्री मन पर
न करो
भरोसा
यह कहावत
नहीं मिटती।
जिस्म का
हर अंग हो
जाता हैं
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टूटा टूटा
जब भी मैं
माँ बनती
फिर कहकर
कमजोर मुझे
दुनिया की
जुबाँ नहीं
जलती।
दिल के जज्बातों
क़ो जब भी
बहाती हूँ
आँखों से
दुनिया के
लिए फिर
भी मैं झूठी ही
दिखती।
यह सफर
रहा है
सदियों से
शायद सदियों
तक ही चले
क्योंकि
किसी के
प्रति बनने
वाली राय
सहज नहीं
मिटती।