लंबा सफर
लंबा सफर
चार दीवारी से बाहर निकलने में
सदियां लग गयीं
औरत क़ो इंसान मानने में ही
सदियां लग गयीं।
अब जब निकली हो घर से
तो बेखौफ हो घूमो
स्रष्टि की दात्री तुम ही हो
जहाँ क़ो यह इल्म करा दो।
देखो कितना खूबसूरत है यह संसार
बिल्कुल तुम्हारी रूह की तरह
जाओ उड़ो नील गगन में फैलाकर पँख
परिंदों की परवाज़ की तरह।
अनुभवों से खट्टे मीठे जब रूबरू होगी
अपनी शक्ति का इस्तेमाल करोगी
डरो मत , रुको मत रास्तों की ठोकरों से
कल यही दुनियाँ तुम्हारा इस्तकबाल करेगी।
तुम चाँद क़ो छू आईं आसमाँ में उड़ रही हो
देखो कैसे अपने सपने जी रही हो
सीता सी मर्यादा और सावित्री सी पतिव्रता
आपाला और घोषा सी तुम विदुषी हो।
चाँद सी शीतल और सूरज की अग्नि लिए
अपने चरित्र में दोनों समा लिए
तुम टूटती नहीं सितारों की तरह,
कभी टूटती भी हो तो भी चमकती हो।
व्यवहार में सम्पन्नता दोनों जहाँ की समाई
तुम लहरों सी गतिमान हो
और गमों की कड़क धूप में भी मुस्कराई
शीतलता भरा आँचल है तुम्हारा।
उलझी न उलझकर भी रिश्तों के ताने बाने में
हर रिश्ते क़ो निभाया आत्मीयता से
इसी लिए इस संसार में प्रेम की है परछाई
ममत्व के पानी से सन्तति सींचती।
तुम बंधनों में बंधी वन्दनीय वंदनी हो
स्वंय में ही सम्पूर्ण हो तुम
तुम पूर्णता का अनुपम, अद्भुत अकल्पनीय
लहराता सागर हो तुम।