कुरेदते जख्म
कुरेदते जख्म
जख्म जो सूखे थे,
भरे थे गहरे घाव।
बस बची थी कुछ,
निशानियां बाकी,
गहरे घावों की।
हो रहे थे,
विस्मृत वह क्षण।
जिनसे मिले थे घाव।
सब कुछ ठीक,
अपने रास्ते,
अपना गाँव।
सुख में साथी,
दुःख में गाँव।
सब जैसे लगने लगा,
ममता की छाँव।
ना जाने अब,
क्यों ! लगने लगा।
खेल रहा है,
कोई अपना दाँव।
उन भरे जख्मों को,
कुरेद कर कर रहा,
हरा भरा।
ताकि बने उसका काम।
और बहता रहे रक्त,
उन हरे भरे जख्मों से।
और मवाद बनकर,
मारता रहे सड़ाद।
फिर सदियों तक..
सदियों सदियों तक...