करती हूँ...
करती हूँ...
मैं जब कभी कुछ लिखने बैठती हूँ,
सोचती हूँ कुछ और पर..
अंत होने से पहले,
मैं तुम तक पहुंचती हूँ,
लालसा होती है फिर..
तुम्हें और भी ज्यादा पाने की,
मैं इर्द-गिर्द हवाओं को छू तुम्हें महसूस करती हूँ,
मुस्कुराती है दर्द में भीगीं ऑंखें मेरी..
जज़्बात-ए-हाल अपने मै तुम्हारे आगे बयां करती हूँ,
सोचती नहीं हूँ उन पलों में कुछ,
तेरी-मेरी जो अनकही बातें हैं,
मैं अकेले में बैठ खुद से बात करती हूँ,
होश में आती हूँ जैसे ही,
मैं अपनी कविता को वहीं पूर्ण विराम दे देती हूँ,
तुझे लगता होगा आज हम जुदा है एक-दूजे से..
मैं तुझे अपनी कविताओं के जरिए खुद में समाहित करती हूँ।।