घर परिवार
घर परिवार
बाबा की बेवक्त गूंजती खांसी,
अम्मा का सुबह चार बजे से सामान टटोलना।
बाबू जी की ठहाकों वाली हंसी,
मां का पूरे दिन रसोई में डब्बे खंगोलना।
ए-जी ओ-जी करता बीवी का रेडियो,
चाचा जी की एक चप्पल को रोज़ ढूंढना।
रिश्तों के नए नए नाटकों से भरा वीडियो,
धुली बनियान पहचानने को उसे सूंघना।
कॉपी किताबों से ज़्यादा बालों को सहलाए,
बहन के नखरों से सबकी नाक में दम है।
हर कमरे में कोहराम मचाए, सब बिखराए,
ये बच्चों की टोली भी क्या बड़ों से कम है।
आंख खुल जाती हैं चिंता में अगर बाबा खांसे नहीं,
"अम्मा ठीक हो" सवाल पूछता है हर कोई।
सबके लतीफे निकलते हैं अगर बाबूजी बोले नहीं,
देर हो कितनी भी, भूखा नहीं जाता घर से कोई।
बीवी के सवालों की भी आदत हो गई है अब,
और चाचा जी की चप्पल मिल ही जाती है कहीं।
इस जीते जागते नाटक के पात्र हैं हम सब,
महाभारत से रामायण तक सब देखा है यहीं।
चोटी खींचता हूं छोटी की जब वो नखरे नहीं दिखाती,
"अब फरमाइश बंद है तेरी, क्या कुछ हुआ है" पूछता हूं।
"नहीं भैया सब ठीक है।" कहती है, पर बातें नहीं बताती,
कब मेरी छोटी इतनी बड़ी हो गई, यही सोचता हूं।
पर सबसे अनोखा है ये बच्चों का रिश्ता,
इनके शोर से घर-आंगन रौनक रहता है।
थोड़ा भी चुपचाप हों तो घर नहीं जंचता,
अजीब सी खामोशी, सब सूना सूना लगता है।
पैरों की मालिश करने से सिर में तेल लगाने को,
कोई न कोई तैयार रहता है किसी नए कारनामे को।
पूछते नहीं कि कौन कितना कमाता है घर चलाने को,
पर कमी नहीं हुई आज तक सबके भर पेट खाने को।
खुशियां बांटनी हों या दुख दर्द किसी का बढ़ता हो,
सब साथ में मिलकर सहते हैं, ग़म भी थोड़ा कम हो जाता है।
सब एक दूजे का साहस हैं, यहां सूर्य सदैव चढ़ता हो,
इस मीठी नोक झोंक में भी, हमें हंस कर रहना आता है।
अटपटा -सा, खट्टा - मीठा कुछ कुछ अतरंगी है,
पर एक डोर से बंधा है अपना यह घर-परिवार।
इस कल्पवृक्ष का हर कोई अभिन्न अंग है,
बांध कर रखे है हमें प्यार, आदर और सत्कार।
