मेरा पक्ष
मेरा पक्ष


जब चाहे कुछ भी बोलती हो,
बात-बात पर टोकती हो।
अपनी सारी कहनी है तुम्हें,
पर मुझे कहने से रोकती हो।
जब पारा तुम्हारा चढ़ता है,
जो कहती हो वो सुनता हूं।
तुम्हारे गुस्से से डर लगता है,
इसलिए शब्द भी ध्यान से चुनता हूं।
कुछ भी कह जाना गुस्से में,
फिर गुस्से को ही दोषी ठहराना।
बातों की चोट से लगे घावों का,
मुश्किल है बाद में माफ़ी से सहलाना।
चुप रह जाता हूं यही सोच कर,
कि बात बढ़ाने से रिश्ता बिगड़ता है।
पर सोचो मेरे सीने में भी एक दिल है,
जिसमें जज़्बातों का सैलाब उमड़ता है।