मेरा पहला प्यार: मेरी कटोरी
मेरा पहला प्यार: मेरी कटोरी


"गौरव"
अपने कंधे पर हाथ का स्पर्श महसूस हुआ, तो गौरव वापस होश में आया। आँखें नम थीं पर आंसू नहीं टपक रहे थे।
गौरव के पास बैठकर शर्मा जी बोले, "बेटा, इस दुख की घड़ी में हम तुम्हारे साथ हैं।"
यह सुनकर फिर से अहसास हुआ की माँ अब नहीं रही। गौरव ने हामी भरते हुए सर हिलाया। फिर सर उठाकर सामने लेटी माँ को टकटकी बाँधे निहारने लगा। लगभग सभी रंग पखेरू हो गए थे, सब सफ़ेद ही नजर आ रहा था। आसपास न जाने क्या-क्या चल रहा था। कोई ट्रे में पानी, तो कोई चाय दे रहा था। प्लेट में बिस्कुट और कटोरी में नमकीन भी थी।
गौरव की नज़र उस कटोरी पर अटक गई।
"लो, बेटा कुछ खा लो। अब तुम्हें ही सबको संभालना है। अपने पिताजी का सहारा बनना है। कुछ नहीं खाओगे तो शरीर में जान कैसे आएगी ?" कावेरी आंटी ने ट्रे आगे बढ़ाते हुए कहा।" अब तुम्हारे भैया तो नौकरी के बाद यहाँ रहते नहीं। अनीता की भी शादी हो गई है। तो यहाँ अब तुम ही तो हो।"
कुछ खाने का मन नहीं था पर गौरव ने अनैच्छिक ही कटोरी उठा ली।
हाथ में पकड़े गौरव बीते दिनों के गलियारों में खो गया।
"गौरव, ये लो। देखो तुम्हारे लिए क्या लाई हूँ।" माँ ने गौरव को आवाज़ दी। हाथ में प्लास्टिक का बैट लिए गौरव भागा आया।
"आज से ये तुम्हारी कटोरी। देखो इसके नीचे तुम्हारा नाम भी गुदवा दिया है। गौरव !" माँ कटोरी उल्टी करके दिखाते हुए बोली।
गौरव की आँखें चमक उठी। बैट वहीं छोड़ कर सबको अपनी कटोरी दिखाने लगा।
"अब बस भी करो, लाओ इसे अच्छे से धो देती हूँ ।" माँ ने कटोरी गौरव के हाथ से ले ली। एक बार को तो गौरव हिचकिचाया पर कटोरी दे दी।
"गौरव, लो खाना खा लो" थाली में रोटी और कटोरी में सब्ज़ी लगाते हुए माँ ने गौरव को आवाज़ दी।
गौरव ने कटोरी उठाई और देखने लगा।
"हाँ, हाँ ! तेरी ही कटोरी है। अब अच्छे से खाना खा और पूरी कटोरी साफ़ हो जानी चाहिए।"
वो कटोरी तो जैसे गौरव की जान बन गई थी। सारे बर्तनों में से अपनी कटोरी अलग ही पहचान जाता था। किसी दिन अपनी कटोरी न मिले तो अलग ही नखरे दिखाता।
"अच्छा माँ चलता हूँ ।" गौरव स्कूल जाने को तैयार था।
"सुन, इधर आ। ये खा कर जा। आज परीक्षा है न तेरी। अब अच्छी होगी।" माँ कटोरी में दही चीनी लाई थी।
"क्या माँ, इन सबसे कुछ नहीं होता। ये सब अंधविश्वास होता है। परीक्षा अच्छी होने के लिए पढ़ना पड़ता है।" कहते-कहते गौरव घर से निकल गया और उसकी आवाज़ भी मद्धम होती गई। और गौरव वापस वर्तमान में आ गया।
"जी, बहुत-बहुत धन्यवाद, हमारी माँ की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना कीजिएगा।" भैया हाथ जोड़कर सबसे यही कह रहे थे। यह अंतिम अनुष्ठान भी संपन्न हुआ-माँ की तेरहवीं।
शाम को सब थक-हार कर आँगन में बैठे थे। गौरव भी अपने कमरे में कपड़े बदल रहा था, जब गुंजन बोली "ए जी, सुनिए, अभी दीदी से बात हुई थी, वो लोग शायद कल ही निकलेंगे। माँ की चीज़ों का फैसला शायद अभी होगा। मैं कुछ बोलूँगी तो सही नहीं लगेगा। वैसे मुझे कुछ नहीं चाहिए, आप हैं न। पर अपना हक़ तो सबको मिलना चाहिए। आप भी तो बेटे हो उनके। बाकी जैसा आपको ठीक लगे। पर भैया के सामने बोलने में हिचकिचाना मत।" सब सुनकर गौरव आँगन में चला गया।
भैया बोले "पिताजी, मुझे कल वापस निकलना होगा। आप तो समझते ही हैं नौकरी की परेशानी।" वो चुप थे, जिनकी ऊँची आवाज़ से हम काँपते थे, आज बिलकुल शांत थे। तभी अनीता भी बोली "पिताजी, मुझे भी कल जाना पड़ेगा। बच्चों के स्कूल की काफ़ी छुट्टी हो गई है और इनको देखने वाला भी कोई नहीं है। वहाँ मम्मी जी के पैरों में भी दर्द रहता है। ठीक से चल भी नहीं पाती बेचारी।"
"अजी सुनती हो.." न जाने क्या सोचकर अचानक ही पिताजी के मुँह से आवाज़ निकल गई। और वो मुँह फेर कर नज़रें चुराने लगे। शायद हर बार की तरह अनीता के जाने की बात सुनकर उसे क्या-क्या देना है सोचने लगे थे और इसी विचार से माँ को आवाज़ दे दी।
"मैं सोच रहा था कि जब सब यहीं हैं तो क्यों न माँ का सामान बाँट लें। सब शान्ति से हो अच्छा है।" भैया की बात सुनकर पिताजी ने बस सिर हिला दिया।
अगले ही पल भाभी माँ का संदूक ले आईं। जैसे मानो बस पिताजी की स्वीकृति की बाट देख रही थीं। उसके पीछे-पीछे गुंजन भी सबके लिए चाय नमकीन ले आई।
"चाबी?" भैया बोले।
अनीता अंदर गई और चाबी ले आई, उसे पता था माँ कहाँ क्या रखती थी।
जब गुंजन गौरव के पास ट्रे लेकर आई तो उसने फिर से कटोरी उठा ली।
"चाय?" गुंजन ने पूछा।
"नहीं, बस ठीक है।" गौरव संदूक को देखते हुए बोला।
"ये कंगन तो माँ ने मुझे पहले ही दिए थे, पर तब मैंने मना कर दिया था।" भाभी बोली।
"ठीक है, सब हिसाब से बाँट लो।" भैया बोले।
गुंजन भी खाली ट्रे लेकर वहीं संदूक के किनारे बैठ गई। पर खाली हाथ नहीं रही। वो भी मन मुताबिक कुछ-न-कुछ लेती गई।धीरे-धीरे संदूक खाली होता गया।
"अरे गौरव, इधर आ जा, देख ले। बता तुझे क्या चाहिए।" भैया बोले।
गौरव ने मुठ्ठी भींच कर हाथ ऊपर किए और खोल कर कटोरी दिखाई। "माँ ने मुझे पहले ही दे दिया। अब और कुछ नहीं चाहिए।"
पिताजी जो अब तक शांत थे, फूट-फूट कर रोने लगे और बाकी सब अब नज़र चुरा रहे थे। गौरव पिताजी के पास गया और गले लगाकर बोला "मैं हूँ ना, मैं सब संभाल लूंगा।"