यारों का हिसाब
यारों का हिसाब


आज भी सोच कर आती है अनभिप्रेत मुस्कान,
जब यार की यारी से बढ़कर नहीं था कुछ महान।
सही गलत का भेद नहीं था, सोच की सीमा सीमित थी,
जो कह दे मेरा दोस्त उसी की सच से ऊपर कीमत थी।
भाई नहीं था फिर भी उसको, भाई से ज़्यादा 'भाई' कहा,
उसके साथ घूमने पर, सब घरवालों का तंज़ सहा।
दोस्ती की कसम ने हमसे क्या क्या काम कराए,
साथ देने को, सिगरेट के दो कश हमने भी लगाए।
आशिक़ी का चढ़ा था जब हमारे सर भी बुखार,
कुछ दिन तो दोस्त से हमने भी सीखा था गिटार।
उसकी सहेली जब चुपके से उसका ख़त लाई थी,
ख़ुशी में हमने, साईकिल की गद्दी भी नई लगवाई थी।
जेब खर्च के पैसों से जब शाहरुख की पिक्चर देखी थी,
तू मेरे घर, मैं तेरे घर था, अच्छी गोली खेली थी।
मुश्किल था जब पढ़ना तो, ऐसी भी जुगत लगाई हमने,
पाठ बांट कर प्रश्न पढ़े, मिलजुलकर नाव चलाई सबने।
शौक थे सबके अपने, प्रतिभा भी मिली थी वरदान में,
सबको बता नहीं पाए दिल की, कह देते थे मेरे कान में।
साथ तो था मैं उनके हर पल, पर साथ नहीं दे पाया था,
उनकी छोड़ो, मैं कब अपने मन की ही कर पाया था।
चाय की टपरी पे घंटों कल्पनाओं के पुल बांधते थे,
पैसे देने की बारी में एक दूसरे का मुंह ताकते थे।
होंगे एक दिन अमीर, ये रौब तो सभी झाड़ते थे,
बड़े होके हिसाब चुकता करने की डींगे भी हांकते थे।
अब सिगरेट बंद करने की डॉक्टर सलाह दे रहा है,
चाय छूटी, गिटार किसी बक्से में बंद धूल खा रहा है।
न जाने कब फिर से एक पिक्चर साथ में देख पाएंगे,
जो पढ़े थे पाठ साथ में मिलकर, कब उनको दोहराएंगे।
कुछ कर गुजरे अपने मन की, कुछ दौड़े भागे जाते हैं,
बात हो जाती है कुछ से, कुछ ना जाने किस गंगा नहाते हैं।
साईकिल से कार तक, इन सालों में प्रगति कर चुका हूं,
कोई दोस्त आएगा हिसाब मांगने, इसी प्रतीक्षा में रुका हूं।