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कोड़ा वक़्त का

कोड़ा वक़्त का

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कभी उठाता है,

कभी गिराता है,

वक़्त हर एक को

आज़माता है।


वक़्त के साथ-साथ

जो भी चला,

मंज़िल तक वो ही

पहुँच पाता है।


है आदमी की ही

फ़ितरत ऐसी,

जिसका खाता है,

उसी पे गुर्राता है।


वो शख़्स क्या

ख़ाक़ जी सकेगा,

जिसे हर पल

ख़ौफ़े-मर्ग सताता है।


ना ज़िन्दगी,

ना मौत पे इख़्तियार,

फिर क्यूँ आदमी

इतराता है।


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