कन्या-भ्रूण की हत्या
कन्या-भ्रूण की हत्या
सुन कर उसका करुण कृन्दन
धरती में भी हुआ होगा कम्पन।
पर कैसे न पसीजा, तुम्हारा मन ?
किया तो होगा तुमने भी
अपने मन में एक मंथन।
क्यों नहीं आया उसके हिस्से अमृत?
क्यों करना पड़ा उसको
फिर से विष का ही सेवन ?
तुम तो माँ हो,
तुम तो देती हो जीवन
फिर क्यों छीना उससे
उसका जीवन ?
फिर क्यों कर दिया उसकी
जीवन लीला के
शुरू होने से पूर्व ही समापन ?
फिर क्यों एक नन्ही कली
न जी पाई खुद अपना बचपन?
क्यों न बचा पाई तुम अपना मान
क्यों बन गयी तुम माँ से हत्यारन ?
क्यों मारा अजन्मी बच्ची को
ओढ़ा तुमने पाप का आवरण?
बन जाती है क्यों नारी ही,
खुद एक नारी की ही दुश्मन?
है भय बस इतना ही
देख खून से तेरे लथपथ हाथ
ऐ मानव! तुझ से छूट न जाए
माँ प्रकृति का साथ।
कन्या-भ्रूण की हत्या है अभिशाप
तू भी अब इस सच को मान।
समय रहते ले स्थिति का संज्ञान
कहीं विलुप्त न हो जाए
धरती से मानव का सृजन
और मिट जाए मानव जाति का नाम।