कितनी सिमटूँ
कितनी सिमटूँ
सिहर उठती है मेरी रूह उस हादसे की कल्पना से जिसे करने में बहादुरों को शर्म आती नहीं,
क्यूँ रौंदने पर इज्जत अबला की नपुंसकों की रूह काँपती नहीं।
मर्दों के तन की भूख का क्या कोई ओर पर्याय नहीं, और कितनी सिमटूँ?
मेरे हर अंग की परछाई को ढूँढती उसकी वासना भरी निगाहों से बचते थक गई है मेरी काया।
हल्की-सी दरार के बीच भी मेरे चेहरे की झलक पर बेबाक होते उसके एहसासों पर कोई लगाम क्यूँ नहीं?
सरे राह छेड़ी जाती हूँ कोई इनको रोकने वाला ही नहीं।
कहर ढाती है उसकी लालायित नज़रें मानों अभी तितली को दबोच लेगा अजगर,
उसकी बेशर्मी से टकराते मेरी हया दम तोड़ रही है।
कितने कामातूर कैमियो से करते है बलात्कार वहशी,
कभी आँखों से कभी बोली से कभी हाथों से तो कभी सिटीयों से, बिना स्पर्श के नंगा करते है।
माल, पटाखा, आइटम या नंबर से नवाजा जाता है मेरे तन को जैसे बाज़ारू चीज़ हूँ कोई,
क्या अपनी माँ बहन की शान में भी कहा जाता होगा यही।
क्यूँ मैं सम्मान की हकदार नहीं मर्दों की नज़रों में किटली पर गप्पें लड़ाते लड़कों की
शरारतों की मारी कहाँ छुपाऊँ खुद को,
क्या ऐसा कोई पर्दा बना है कहीं।
दुपट्टे के आरपार से बिंधती वेधक नज़रें उसकी सीने के समूचे मांस को जला जाती है,
बिना छूए होते बलात्कार की रपट कहाँ लिखवाए कोई।
जिस तन से जन्म लेता है उसी को उन्मादित होते कलंकित करता है,
चंद पलों की उत्तेजना के बदले एक ज़िंदगी को धूल में क्यूँ मिटाता है कोई।
क्यूँ मेरी वेदना की किसी को कोई परवाह नहीं लगता है वक्त आ गया है
अपनी इज्जत की रखवाली है मेरी ही लकीरों में लिखी,
मरूँगी नहीं अब मारने की तलब जगाऊँ यही है सही।
