कितना अच्छा होता
कितना अच्छा होता
कितना अच्छा होता जो हम तुम कभी मिलते नहीं
वो जो एक भरम था कि हम में तुम में कुछ तो है कहीं
वो भरम नहीं बनता तो कितना अच्छा होता मेरे लिए
अब जो तुम दबे शब्दों में बोलती हो कि क्या फायदा
मुझे पहले पता चलता तो कितना अच्छा होता मेरे लिए
हमारी राहें पहले से ही अलग थीं ये जानना ज़रूरी था
अब लगता है ये बेहतर होता कि हम साथ चलते नहीं
कितना अच्छा होता जो हम तुम कभी मिलते नहीं
बदलना ज़रूरी था मैं इससे कभी इंकार नहीं करता
मगर इस कदर बदल जाओगे ये बात नहीं हुई थी कभी
मुझे मालूम था कि हमारे रिश्ते में ढलती शामें आएंगी
मगर जो ये रात आयी है इतनी तो रात नहीं हुई थी कभी
अगर मालूम होता मुझे कि अंधेरा मुझ पर इतना छायेगा
तो शर्त लगा सकता हूँ हमारे दरमियाँ सूरज ढलते नहीं
कितना अच्छा होता जो हम तुम कभी मिलते नहीं
एक जो मतलबी दुनिया है और एक ओर जहाँ तुम हो
अब दोनों में मुझे कुछ ज्यादा फ़र्क़ दिखाई नहीं देता
मैं हर रोज़ कह देता हूँ तुमसे अपने दिल की हर बात
वो बात अलग है कि तुम्हें मेरा कुछ सुनाई नहीं देता
तुमने तो यूँ ही कर दिए थे वादे ये अब पता चला मुझे
काश तुम वादों की कद्र जानते, ज़ुबान से बदलते नहीं
कितना अच्छा होता जो हम तुम कभी मिलते नहीं
