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संजय असवाल

Abstract

4.7  

संजय असवाल

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किस्मत का मारा

किस्मत का मारा

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किस्मत भी मेरी 

कुछ अजीब है 

कभी पल में हंसाती है 

कभी गहरे घाव 

दिल पर दे जाती है,

कभी छांव बन 

सुख का बादल 

चुपके से ओढ़ा देती है 

कभी कड़ी धूप बन 

दिल पर ज़ख्म दे जाती है,

वैसे किस्मत 

शुरू से मुझसे रूठी है

बस थोड़ा सा 

कभी मेरी झोली में 

फेंक देती है

अपने अहसानों का बोझ

मुझ पर लाद देती है,

देख,

दिया तो है तुझे कुछ....

चाहे कम ही हो 

या कुछ टुकड़ा सा...

ये कह कर 

मेरी किस्मत पर तंज कसती है,

मैं भी खुशी से जो मिलता है

चुपचाप ले लेता हूं

अपनी किस्मत पर लिखा 

मान सह लेता हूं,

पर कभी कभी 

मैं भी किस्मत का रोना रोता हूं 

किस्मत को अपनी

अक्सर कोस लेता हूं,

किसी को बिन मांगे

खूब मिल जाता है

कोई मेहनत करके भी खाली रह जाता है,

किस्मत बस मेरे हिस्से में

दर्द और आंसू रखती है 

किस्मत में यही था तेरे 

ये कह कर खिलखिला हंस पड़ती है,

किसी ने मुझसे 

कुछ नहीं छीना,

ना मैं किसी पे दोष रखता हूं 

जब किस्मत में ही नही लिखा मेरे 

तो क्यों फिर मैं उम्मीद रखता हूं,

समय से पहले 

किस्मत से ज्यादा 

किसी को कभी नहीं मिला

ये बात 

अक्सर जहन में रखता हूं,

हंसता हूं खुद पर 

और अपनी किस्मत पर भी..

मगर लाचार बेबस खुद को पाता हूं,

किस्मत मेरी आगे आगे 

मैं पीछे पीछे फिरता हूं 

मैं किस्मत का मारा 

मैं हरदम खाली रहता हूं।



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