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Baman Chandra Dixit

Classics Inspirational

4  

Baman Chandra Dixit

Classics Inspirational

खुली खिड़की से

खुली खिड़की से

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जब मैं ताकता खुली खिड़कियों से

सन्नाटाओं को, दूर आसमाँ तक।

खामोश ताकते मेरी नज़रों को

और भी दूर तक पसर जाते,

देखता हूँ तब मैं मुझको....


सोचता, कितनी सम्भाबनाओं को,

कितने दरवाजों को ,

बन्द कर दिया था मैने।

जो शायद खुल जाते

बेहिसाब उम्मीदों के तरफ,

मुकम्मल सारे एहसासों की ओर

और आराम फरमा रहे होते

मेरे अफशोस सारे आज।

जब मैं ताकता खुली खिड़की से।


और तब मैं पाता

बन्द दरवाजों के कपाट के पिछे

कैद अनेक बदहवासियाँ।

कुछ वादें रुंधी हुई सी

कुछ उम्मीदें बंधी हुई सी।

आवाज उन साँसों का

कानों को भेद कर

दिलों में समा जाते

स्पंदनों को शिथिल करते हुए।


और भी अधिक असहाय

महसूस करता मुझको मैं।

जब मैं ताकता खुली खिड़की से..

और तब मैं सुनता..

अनगिनत आहें अफ़सोसों का

जिह्ने अनसुना कर

पीछे छोड़ आया था मैंने,

कुछ बेहतर और कुछ ज्यादा

पाने का ख्वाहिशें लिये हुए।


परखता हूँ जब आज 

कुछ भी बेहतर दिखता काहाँ?

अब्बल होने का ढिंढोरा पीटते हुए

बहुत कमजोर उपलब्धियों को

मुहँ छिपाते पाता।

जब मैं ताकता खुली खिड़कियों से 


और अब मैं सोचता

जो होना सो हो तो चुका

अब और सोचके फायदा क्या ?

पीछे मुड़ने का प्रयास भी

नामुमकिन हो चला अब।


खड़ा हो कर सोचने के लिये भी

सबर नहीं आज।

पीछे से हुजूम मज़बूरियों की

धकेलते हुए ले चलते है

सामने की ओर,

आगे और भी आगे तक,

और मैं बढ़ते जाता यंत्रबत।

सोचते हुए खुद को पाता

बस ताकते हुए खुली खिड़कियों से।


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