खुद से सवाल
खुद से सवाल
मैं जानती हूँ ज़ेवरों से लदी
उस औरत को
जो सजी धजी रहती है जेवरों में
हर दिन
वह कुमकुम भरी माँग में मुस्काती है
हर बार
खुश रहती है बच्चों के लाड प्यार में
दिन भर
वह मसरूफ़ रहती है घर गृहस्थी में
हर रोज़
इसी तरह गुज़रते रहते है कई साल
आपाधापी में
अपने नये परिवेश में वह पाती है
नये रिश्ते
नयी पहचान में वह भूल जाती है
पुरानी बातें
गुज़रते वक़्त के साथ वह बदलती है
ढेर सी बातें
और छोड़ देती है न जाने कितनी ही
ख़्वाहिशें....
खुद को भूल कर वह ढल जाती है
नये परिवार में....
पूर्ण समर्पण से ढलते हुए गढ़ लेती है
अपनी पहचान......
अपने आप से सवाल करती रहती है
कश्मकश में
जानते हुए कि जवाब सही नही होंगे
कभी भी
फिर भी वह सवाल करती जाती है
अपने आप से.....!
