कहॉं डुबो दऊँ गौरा को
कहॉं डुबो दऊँ गौरा को
' कहॉं डुबो दऊँ गौरा को,
कहॉं डुबो देऊँ शक्ति को।'
सारंगी की धुन पर बजता गाना
उच्च स्वर से गाया जाता गीत
स्मृति झरोखों से झॉंकने लगता
अपनी ओर सहसा खींचने लगता
सारंगी बजती रहती निष्णात
स्वर चारों ओर गूँजता रहता।
'कहॉं डुबो देऊँ गौरा को,
कहॉं डुबो देऊँ शक्ति को।'
गौरा जननी की पीड़ा साकार हो उठती
नारी की विवशता पर-गृह जाने की,
और योग्य वर न मिल पाने की।
सारंगी बजती रहती अश्रु झरते रहते।
कहॉं डुबो दऊँ गौरा को,
कहॉं डुबो दऊँ शक्ति को।
लाड़ों से पाली मेरी गौरा है
विधि का कैसा उलटा खेल है,
पागल वर के लिये तप कीन्हा
नन्दन वन का कोमल फूल
बबूल के पेड़ में लगा चाहा
नारद से किसी का घर ना बसा।
गौरा को गोद में ले मैं
गिरि से गिरौं,पावक जरौं
बौराये वर से ब्याह ना करौं,
कत नारी सरजी जग माहीं
पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं ।
पुरुष की चरण सेविका नारी।
पार्वती ने मॉं को समझाया
विषाद करके क्या करना,
विधि का विधान टारे न टरे
क्यों क्लंक व्यर्थ सिर पर लेना,
सुख दुःख जो है ललाट में लिखा
वह जहॉं जाऊँगी वहॉं पाऊँगी।