खलबली
खलबली
शादी अभी नई ऩई थी, दोनों को दिलों में खलबली थी।
उनका भी दिल बेचैन सा था, इधर भी आँखों में कोई कमी न थी।
ना मैं पहले उसे जानता था ना वो मुझे जानती थी।
मिला कुदरत की तरफ से साथ ऐसा, ना उसमें कोई कमी थी, ना मुझमें कमी थी।
दिखती थीं उसकी शराबी सी आँखे, हमारे हिस्से में भी महकशी थी।
टकरा कर आ रही थी हवा जब उनसे, महसूस हो रही थी हमें भी खुशबू सी थी।
मैं भी चुप सा बैठा था, उसकी चुप्पी भी खामोशथी।
ना उसने बात कही कोई ना मैंने बात छेड़ी थी, अजीब सा था वो मंजर बात नई नवेली थी।
खतों चिट्ठीयों का था वो जमाना, ना फोन ना मोबाइल की सुविधा थी।
चली जाती जब कभी माईके वो, लगता था बह गई एक लहर सी।
मिलते जब महीनों बाद कभी लगता था खुदा ने फिर जिंदगी दी।
वो मिलन भी अजीब मिलन था सुदर्शन, लगता था तहजीब भरी जिंदगी थी।
आया है जबसे नेटवर्क मोबाइल का जमाना, बात बात में है चिड़चिड़ापन और खफा सी।
रोज का मिलन भी अजीब सा हो गया अब तो, कभी मैं खफा सा कभी वो खफा सी।
अजब था वो जमाना सुदर्शन ना उसमें जुबां थी ना मुझमें जुबां थी।
खुल गए घुंघट तक अब तो, कभी मैं वाटसअप पर कभी वो वाटसअप पर थी।
अजीब सी लगन दिखती है मोबाइल पर दोनों की,
सुदर्शन ना मैं बेवफा हुँ, ना वो लगती है बेवफासी।