ग़ज़ल - बिना मोहब्बत के
ग़ज़ल - बिना मोहब्बत के
बिना मोहब्बत के जिंदगी ये, ज़रा सी भी शबनमी नहीं है।
मगर मेरे यार मुझ से कहते, कहीं भी कोई कमी नहीं है।
है थम गयी आँसुओं की बारिश, ग़मों का तूफ़ाँ भी रुक गया है,
मिला के नज़रें तू ख़ुद-परख ले, कहीं ज़रा सी नमी नहीं है।
मज़ाक़ मुझको बना दिया है भरी हुई महफ़िलों में तुमने,
ज़लील हो कर भी दिल में मेरे, ज़रा सी भी बरहमी नहीं है।
कभी ज़रा सी हुई हिक़ारत, कभी ज़रा सी दिखी इनायत,
कहीं बची है ज़रा सी गर्मी जो बर्फ़ दिल पर जमी नहीं है।
ज़रा-ज़रा सा मैं मर रहा हूँ ज़रा-ज़रा सा जी भी रहा हूँ,
लगा के सीने पे कान सुन ले, कि दिल की धड़कन थमी नहीं है।
झुकी निगाहें बता रही हैं, तुझे भी अफ़सोस हो रहा है,
मुझे लगा था ये दर्द दिल में, है बस मेरा बाहमी नहीं है।
नसीब वाले ही जानते हैं, कशिश मोहब्बत की क्या है होती,
नहीं जलाई जिगर में आतिश, वो आदमी आदमी नहीं है।