शर्माती थी सकुचाती थी
शर्माती थी सकुचाती थी
शर्माती थी सकुचाती थी एक अलग ही दुनिया में गुम हो जाती थी,
उस दौर के प्रेम में पड़ी लड़कियां कुछ अल्हड़ सी पगलाती नज़र आती थी!!
अंगुलि में अपने दुपट्टे को फंसाकर बार बार उसे घुमाती थी,
झुमके उसने देखे या नहीं इसलिए बार बार हाथ झुमकों पे फिराती थी,
वो एक नज़र देख ले तो खुशी के मारे कुछ ऐसी झूमती कि
शंकर जी को जल कुछ ज्यादा ही चढ़ा जाती थी!!
शर्माती थी सकुचाती थी एक अलग ही दुनिया में गुम हो जाती थी
वो करवा चौथ में चुपके से व्रत रख जाती थी
वो पेट दर्द का बहाना बना कर खाना नहीं खाती थी
वो मन्दिर के बहाने मिलने जाती थी,
वो चुनरी सर पर रख कर नमस्तक दोनों को कर आती थी!!
शर्माती थी सकुचाती थी एक अलग ही दुनिया में गुम हो जाती थी
वो एक गुलाब पा कर उसी में महक जाती थी वो कहाँ तब कोई परफ्यूम लगाती थी वो,
वो चुपके से खाना कुछ ज्यादा बनाती थी
देख ना ले कोई ऐसे दबे पाँव खाना लेकर घर से वो जाती थी,
तेज़ धूप में वो दुपट्टे की आड़ कर जाती थी
उसे खाते वक़्त धूप ना लगे ऐसा जुगाड़ वो जमा लेती थी!!
शर्माती थी सकुचाती थी एक अलग ही दुनिया में गुम हो जाती थी
वो प्रेम में होती थी वो खूबसूरती के एक अलग ही दौर में होती थी,
वो ख्यालों में खोई हुई जो रहती थी
वो हकीकत से कहाँ रूबरू होती थी,
वो दौर ही कुछ और था वो प्रेम ही कुछ और था!!
शर्माती थी सकुचाती थी एक अलग ही….....

