क्या तुम...?
क्या तुम...?
क्या तुम कभी जान पाओगे ..?
उन कल्पनाओं के बारे में..
जो तुम्हारे न होने से मेरे मन में उठती हैं….
क्या तुमने कभी गौर किया है..?
मेरी आंखों की चमक और चेहरे की मुस्कुराहट पर …
जो तुम्हारे मौजूदगी से होती हैं….
क्या तुमने कभी सोचा भी होगा..?
मेरे उस अनजाने डर के बारे में…
जिन्हें मैं बेवजह तुमसे छिपा लिया करती हूं….
तुम्हारा होना मेरे लिए क्या है…
इस भाव को अल्फ़ाज़ में बांध सकूं…
इतनी काबिलियत शायद नहीं मुझमें…
पर तुम्हारे होने के एहसास भर से…
चीज़ें एक हद तक बेहतर होने लगती हैं…
इसका एहसास बखूबी है मुझे… ।
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