ख़ाली लिफ़ाफ़ा
ख़ाली लिफ़ाफ़ा
हाँ लिखा था मैंने
एक ख़त तुम्हारे नाम का
जिसमें ज़िक्र था तुम संग
गुज़ारे सुबहो शाम का
यादोँ की सियाही में डूबा
हर इक हर्फ़ था
पर वक़्त का कहर
बड़ा ही कमज़र्फ़ था
कुछ यादें झूलती थीं
मोगरे की टहनी में
कुछ लम्हें थे रूमानी
ओस में भीगे हुए
कहीं मात्राएँ मौन थीं
कहीं अल्प से विराम थे
कुछ शामें थीं थकी थकी
कुछ चाँद पूरे नाम के
दामिनी की दमक संग
कुछ बूँदें थी बरसात की
जो दास्ताँ करती थीं बयाँ
हमारे जज़्बात की
टेसू के फूलों में
भीगे हुए लम्हों से
रँगा था मैंने काग़ज़
हमारे एहसास का
इत्र सा महकता
जहाँ हर अल्फ़ाज़ था
और सुरीली सी ख्वाहिशों का
जहाँ एक परवाज़ था
पर यादों और अश्कों के समंदर में डूबे
ख़त को न भेजने की ख़ता में कर आई।