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Alka Nigam

Inspirational

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Alka Nigam

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मील का पत्थर

मील का पत्थर

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सुनो....

ए मील के पत्थर

अब मुझे तुम्हारी दरकार नहीं।

नहीं देखती अब मैं तुम्हारे माथे पे अंकित

वो अंकगणितीय छाप

के.... अब मुझे नहीं फ़र्क़ पड़ता

क्या है रास्ते की नाप।

विस्तृत कर लिया है मैंने

अपनी सोच का क्षेत्रफल।

अपनी बुद्धि को माथे की बिंदी समान

अपने ललाट के बीच केंद्रित लिया है

शब्दों को भी कानों के भीतर

छन छन के आने दे देती हूँ।

वो हर स्वर जो मुझे करे हतोत्साहित

उसका प्रवेश निषेध कर देती हूँ

अपने मन मस्तिष्क में।

नहीं फँसती अब मैं लुभावने स्वप्न जालों में,

और ना ही अतिरेक मिठास लिए 

किसी की वाणी में।

जो दूर हो मंज़िल तो भी 

हताश नहीं होती

और धूप की तपिश से भी

 बेहाल नहीं होती।

नहीं लुभाते मुझे तुम्हारे आस पास लगे

सघन फ़लदार और छायादार वृक्ष,

नहीं चाहती सुस्ताना मैं खरगोश के मानिंद।

मुझे तो कछुए के जैसे

निरंतरता बनाए रखनी है

के पता है मुझे....

जो बोया था मैंने हिम्मत का बीज

उसके सहारे मैं पा लूँगी एक दिन

अपने लक्ष्य का फ़ल।



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