आस
आस
प्रकृति का चक्र
अपनी रफ्तार से चल रहा है...
पर,
पार्क के एक कोने में स्थिर
निष्प्राण और भावहीन,
इस बेंच का मन
कुछ अशांत सा लगता है।
एक अरसा हुआ,
इस पार्क में ज़िन्दगी को साँस लिए हुए।
आस-पास टूट के गिरे सूखे पत्ते
मानो उसे समझा रहे हों...
मत देख राह!
उन श्वेत केशों और
झुकी हुई पीठ वाली पितृतुल्य काया की,
जिसने कल ही अपनों द्वारा तिरस्कृत हो
स्वयं मृत्यु को वर लिया
और देह के बंधनों से
स्वयं को मुक्त कर लिया।
मत देख राह!
उस चंचल मासूम सी तितली की,
जिसके पँख कल ही
कुछ नरपिशाचों ने नोचकर
उसका वजूद
छिन्न-भिन्न कर दिया।
मत देख राह!
उस माँ की,
जो अपने अन्तस में
एक बीज लिए,
खुली हवा को आती थी।
आज वह बीज उसी के रक्त संग
बह गया है नाली में,
कि वो कोई 'लाल' नहीं,
वरन एक 'लाली' है।
मत देख राह!
उस नौजवान की,
जो रोज़ निर्विकार भाव से
तैयारी करता था
एक नए साक्षात्कार की।
कि आज वह भूख से लाचार हो,
तंगहाली से बदहाल हो,
इसी पार्क के बाहर,
अपनी योग्यता के दोने में
चना जोर गरम बेचता है।
अब बस भी कर!
बिछ जाने दे
इन पीले पड़ चुके पत्तों को
अपने ऊपर,
ओढ़ ले ख़ामोशी की चादर
और कर इंतज़ार,
उस भोर का
जब फ़िर से
तितलियां उड़ेंगी और
पोपली साँसे जवानी की लाठी पकड़
मुस्कुराएँगी।
कोई गिनेगा अपनी पहली कमाई के,
कुरमुरे से नोट
और...
कोई 'लाली'
अपनी माँ का आँचल थाम
खिलखिलायेगी।