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Alka Nigam

Others

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Alka Nigam

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कुछ लम्हें सादगी भरे

कुछ लम्हें सादगी भरे

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कुछ लम्हे सादगी भरे ,

आज भी याद हैं।

पीले पड़ते उम्र के

पत्तों के झुरमुट में,

यादों के घोंसले 

आज भी आबाद हैं।


कच्ची उम्र की 

नाज़ुक सी डालियों पे,

चहचहाते बचपन का ,

हुआ करता था बसेरा।

कच्ची सी धूप ले के 

मिचमिचाती आँखें खोल

अंगड़ाई ले आता था हर सवेरा।


कच्ची कैरियों के चटखारों सा

होता था हर लम्हा,

शकर पारे की दिलों में

मिठास भरी होती थी।

उधड़े ऊन के फंदों में भी

गज़ब की गर्माहट होती थी,

और दोबारा धुनकी हुई रुई ओढ़

सर्द रातें भी चैन से सोती थीं।


चाँदी के तार सर पे ओढ़े

बुज़ुर्गीयत की गोद में पलते थे हम,

तुलसी के चौरे के रौशन दिये से

आँखों में उनकी चमकते थे हम।


बर्तन भी घर के 

तब शोर न मचाते थे,

पड़ोसियों के छज्जे भी

गले से लग जाते थे।


अब और क्या बयां करें

उन बीते दिनों की,

आँगन थे कच्ची मिट्टी के

पर रिश्ते पक्के होते थे।


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