सुनो ओ यशोधरा
सुनो ओ यशोधरा
सुनो...
ए निद्रासन में आसीन
यशोधरा।
अपना मन मलिन मत करना।
तनिक विचार तुम करना
पर मुझपे
यूँ मितथ्या दोष न धरना।
जो कर रहा हूँ मैं
वो सर्वथा अनुचित है
किन्तु कारण
समुचित है।
मुझे प्रेम है तुमसे
पर
आसक्ति नहीं
के...
आसक्ति में
प्रेम सी शक्ति नहीं।
इस नश्वर देह की वीणा के
जो तार मेरे,
हैं शिथिल हो चले,
उन्हें स्वयं ही संयम से अपने
कसना है मुझको
प्राण प्रिये।
मेरी राह कदाचित न होगी सुगम
और पथ में छाया भी न होगी सघन।
उस मधुयामिनी में
तुम्हारे समर्पण के समक्ष
मेरा संयम शिथिल पड़ गया था।
कदाचित...
तृष्णा के भँवर में
मेरा बैरागी मन
डूब गया था।
जो रात्रि आज रुक जाऊँगा
तो कदाचित...
भोर की बेला में
एक पग न मैं बढ़ पाऊँगा।
बंध जाऊँगा नेह के धागों से
अपने नवजात की साँसों से।
मेरा ध्येय से ध्यान हट जाएगा
और...
मेरा अवतरण जिस कारण हुआ,
वो सार्थक न ही पायेगा।
मुझे पाठ पढ़ाना है जग को
तप,त्याग और तितिक्षा का,
सर्वस्व दान कर चुनना है
मार्ग मुझे अब भिक्षा का।
मिथ्या इस संसार को
सत्य का पथ दिखलाना है,
विद्रूप हो चुकी संस्कृति का
पुनरुद्धार कराना है,
स्वयं निर्वाण को प्राप्त कर
इस शिथिल,सुषुप्त से समाज का,
पुनर्निर्माण कराना है।
जो समझ सको तो,
हे देवि...!
इस ज्ञान को तुम धारण करना,
देह से जुड़े इस रिश्ते का
दैहिक तुम पारण करना।
यह वचन है मेरा
हे यशोधरा...!
तेरी ऋणी रहेगी सदा ये धरा।
जानता हूँ मैं,
हे देवि...!
इस कृत्य से और इस लाँछन से
मैं मुक्त नहीं हो पाऊँगा
बुद्धत्व प्राप्त कर लूँ
फिर भी...
शुद्ध न मैं हो पाऊँगा।