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Alka Nigam

Abstract

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Alka Nigam

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ए आसमाँ

ए आसमाँ

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ए आसमां...

कभी नीचे तो आ।

नहीं मिलना मुझे तुझसे,

उस छलिये क्षितिज की

चौखट पर...।

कभी सचमुच तू अपनी

धरा पर बिछ जा।

अब नहीं बुझती मेरी प्यास

तेरे मौसमी प्रेम की

बूंदों से।

कभी अपने प्रेम के 

आमरस से,

मेरे मन की माटी का,

घड़ा तो भर जा।

न न ज़्यादा मशक्क़त 

नहीं करनी पड़ेगी तुझे।

बस...

अपने अहम के वहम का 

मुकुट है उतारना

और...

ये जो हमारे बीच

ज़मीं आसमां की दूरी है न,

उस फ़ासले की डगर को

अपने प्रेम की

बरौनियों से है बुहारना।



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