वो भी क्या दिन थे
वो भी क्या दिन थे
वो भी क्या दिन थे
जब बाबा का सूरज
और माँ का चाँद हम थे।
तारे थे उँगलियों पे हमारी
गिनते थे सबको बारी बारी।
न उम्मीद थी किसी से
न किसी से शिकायत,
बस एक मीठी गोली से
मान जाते हम थे।
मिट्टी की देह पे मिट्टी लपेटे
कौन कहता है हमारे पास
पहनने को कपड़े कम थे।
ख़ुद ही खोज लेते थे
तख़्त अपने ख़ातिर,
अपने ही जहाँ के
बादशाह हम थे।
वो भी क्या दिन थे
जब हम हम थे।
न भारी भरकम लफ्ज़ों का
ज़खीरा हुआ करता था
न सदके में सर झुकाने का
सलीक़ा हुआ करता था
फ़िर भी.....
राम भी थे खुद के
और मौला भी ख़ुद के हम थे।
