शबरी
शबरी
देह कांस का हुई अरण्य
रुधिर माँस भी हुआ नगण्य,
अब काह बचा इस शबरी में
तोरा दर्सन पा हो जाऊँ धन्य।
दिन बीतें ज्यों कल्प काल
नाखत की लागे धीमी चाल,
तुम्हरी राह में हे राघव!
नीर से भर गए सूखे ताल।
पलकन से पंथ बुहारूं मैं
देहरी पर चौक पुराऊँ मैं,
तुम्हरे लाने ओ पालनहार
अलकन का तोरण बाँधूँ मैं।
जग मिथ्या है कंटक सम
अज्ञान का तम चहुँओर सघन,
इस दिग्ध जगत से समर्पण के
नित मीठे बेर निकालूँ मैं।
सुन शबरी की आर्द्र गुहार
करुणासिन्धु भी भए निहाल,
चख कर प्रेम से जूठे बेर
रोपा अनुग्रह का वट विशाल।