खड़ीबोली का स्वर्णिम युग
खड़ीबोली का स्वर्णिम युग
हिन्दी भाषा में अथाह कोष के, सजीव दर्शन दे जाता है।
साहित्य में हिंदी की पैठ को, बड़ी सुंदरता से बतलाता है।
हिन्दी-साहित्य में यह युग, 'गद्य-पद्य' संगम कर जाता है।
तभी छायावाद, खड़ीबोली का 'स्वर्णिम युग' कहलाता है।
इनकी समस्त कविताओं में, जीवन्त चित्रण समाहित रहे।
लेखन में चित्रण-कौशल, जिससे मर्म सतत-प्रवाहित रहे।
इनकी अनेक कृतियों में, देशभक्ति की अमिट छटा दिखे।
रहस्यवाद से भरपूर लेखन, प्रगतिवाद के बीच बंटा दिखे।
जिसने अपनी कविताओं से, भारत को केसरी कर डाला।
छायावाद के कवि हुए हैं, श्री सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"।
इनके अथक प्रयासों से ही, खड़ीबोली को सम्मान मिला।
लेखन शैली के कारण ही, हिंदी में निर्विवाद स्थान मिला।
अपनी प्रसिद्ध कविता से, महाराणा की गाथा गायी तुमने।
शब्दों के सिद्धप्रयोग से, देशभक्ति घर-घर पहुंचायी तुमने।
जिनके छन्दों को सुनते ही, मिटते घायल हृदय के अवसाद।
छायावाद के अगले प्रसिद्ध कवि हैं, श्री जयशंकर प्रसाद।
लेखन प्रसिद्धि के कारण ही, तुम आधुनिक मीरा कहायी।
जन की पीड़ा को कलम से, थीं सबके मन तक ले आयीं।
छायावाद का प्रसारण तुम, इसकी प्राण-प्रतिष्ठा है तुमसे।
भाषायीय संक्रमण में भी, नये सृजनों की निष्ठा है तुमसे।
जिसने साहित्य को पूजा हर पल, समझकर अपनी "मां"।
छायावाद की अगली कवयित्री हैं, श्रीमती महादेवी वर्मा।
छायावाद के हर काव्य हेतु, सुकोमल कला प्रदायक तुम।
जो प्रकृति है एक मधुर गीत, तो उस गीत के गायक तुम।
इनके शब्दों से निकली तरंगें, आज पर्वतों से टकराती हैं।
"प्रकृति के सुकुमार कवि" का, जीवंत परिचय दे जाती हैं।
साहित्य है सूर्य के समान, न हो जिसकी आभा का अंत।
छायावाद के चतुर्थ स्तंभ हैं, श्रद्धेय श्री सुमित्रानंदन पंत।