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Sulakshana Mishra

Abstract

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Sulakshana Mishra

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खाली हथेलियाँ

खाली हथेलियाँ

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लिखते लिखते

मेरी कलम पैनी हो गयी।

वो स्याही जिससे सजते थे 

रंग बिरंगे अल्फ़ाज़ कभी

उसकी छाप भी अब 

स्याह काली सी हो गई।


भागते थी कभी

अपने एकाकीपन से

भागते भागते ही सही

उस एकाकीपन से भी 

अपनी यारी सी हो गई।


उकेरते थे अपने जज़्बात

काग़ज़ों पे यूँ ही कभी कभी

न जाने कब जाने अनजाने

जज़्बातों को उकेरने की

मेरी भी एक शैली हो गई।


चले थे ज़िंदगी की सुबह में

सफ़र पे कभी

चलते चलते न जाने कब

मंज़िल तक पहुँचे तो ज़रूर

पर पहुँचते पहुँचते ही 

ज़िंदगी की शाम हो गई।


जेबें भर गईं तज़ुर्बों से ज़रूर

मगर हथेलियाँ खाली ही रह गईं।



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