एक अधूरी दास्तांं
एक अधूरी दास्तांं
कितनी बातों की खामोशी,
उन्हें बतानी थी,
हर एक अक्स़ की कहानी
उन्हें बतानी थी,
सुबह की इबाद़त और
शाम की अजान भी
उन्हें बतानी थी,
शौक चढ़े थे परवान हमारे,
ये बात भी उन्हें बतानी थी,
ख़्यालो के समुंदर में मिलकर,
डुबकियां जो लगानी थी।
मालूम गर हो तो छुट्टियों
के अहसास वाली बात भी
उन्हें बतानी थी,
कब वक्त बीता उस पत्र
में लिखते गए....
ढलते दिनों में एकांत को
सिमटते गए,
बंजर कहानी को उपजाऊ
करते रहे ...
शिकायत उनकी थी फिर
इस कदर की पत्र लिख कर भी
दास्तां अपनी अधूरी बुनते रहे।