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Shyam Kunvar Bharti

Abstract

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Shyam Kunvar Bharti

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कोई रुकता नहीं

कोई रुकता नहीं

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धीरे धीरे अंधेरी रात भी गुजर जाती है

छुप जाते चाँद तारे नई शुबह आती है

सागर की लहरों ज्वार आना लाज़मी है

छूकर लहरे किनारो लौट उधर जाती है।

सूरज दिन भर तप थक ढल जाता है

रात चाँदनी संग तारो नजर आती है

पानी नदी मिल सागर उड़ बादल बनता

उमड़ घुमड़ बरस मिल नदी बह जाती है।


कभी धूप छांव और शुबह कभी शाम

सुख दुख भी चलता जिंदगी बसर जाती है

कभी तनहा कभी भीड़ मे सिलसिला है

पेड़ तन्हा सब सहता बीत उमर जाती है।


धूप मे साया संग चलता रात तनहाई है

गमो के दौर मंजिल तन्हा नजर आती है

कोई रुकता नहीं टिकता नहीं जमाने में।


गम खुशी और बेबसी कहा ठहर पाती है

चखना स्वाद हर लम्हो मजा जिंदगी का

देखना है जिंदगी कितना कहर ढाती है।


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