STORYMIRROR

Shyam Kunvar Bharti

Abstract

4  

Shyam Kunvar Bharti

Abstract

कोई रुकता नहीं

कोई रुकता नहीं

1 min
312

धीरे धीरे अंधेरी रात भी गुजर जाती है

छुप जाते चाँद तारे नई शुबह आती है

सागर की लहरों ज्वार आना लाज़मी है

छूकर लहरे किनारो लौट उधर जाती है।

सूरज दिन भर तप थक ढल जाता है

रात चाँदनी संग तारो नजर आती है

पानी नदी मिल सागर उड़ बादल बनता

उमड़ घुमड़ बरस मिल नदी बह जाती है।


कभी धूप छांव और शुबह कभी शाम

सुख दुख भी चलता जिंदगी बसर जाती है

कभी तनहा कभी भीड़ मे सिलसिला है

पेड़ तन्हा सब सहता बीत उमर जाती है।


धूप मे साया संग चलता रात तनहाई है

गमो के दौर मंजिल तन्हा नजर आती है

कोई रुकता नहीं टिकता नहीं जमाने में।


गम खुशी और बेबसी कहा ठहर पाती है

चखना स्वाद हर लम्हो मजा जिंदगी का

देखना है जिंदगी कितना कहर ढाती है।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract