अपने हिस्से का धूप -पानी
अपने हिस्से का धूप -पानी
मैं चेतन हूँ यहाँ ,वो जड़ है वहाँ,
दोनों का पालन -पोषण एक -सा हुआ।
जमी जड़ों से उसको करके जुदा,
रोपा गया उसे किसी की अँगना।
मुझको मेरे बाबुल के दर से उठा,
अनजानी दर पे जा के रखा।
सूखी थीं डालियाँ,पात पीत हुए,
कई मौसम बीते गीले -सूखे उसके।
पर अड़ा रहा गीली-सूखी धरा,
तब शाख़ों पे उसकी कोंपल पनपा।
मुझे भी यूँ ही था रोपा गया,
कोई अनपहचानी सी थी वो देहरी।
वो बेगाने फिर मेरे होते गए,
मुरझाई वहीं फिर हरी हो गई।
जड़ -चेतन का अनकहा रिश्ता,
दोनों के जीवन की एक -सी कहानी।
अनकहे रिश्ते ये फिर हुए हरे,
पाकर अपने हिस्से का धूप-पानी।
