स्व निर्मिति
स्व निर्मिति
उठाया हाथ एक माटी का लोंदा
कुशल चितेरे ने गढ़ दी सुंदर -सी नारी।
सुन्दर चेहरा, सुघड़ देहयष्टि
सुन्दर मन और बनाये नैन कटारी।
ममता, प्रेम और वात्सल्य दिया ,पर
विह्वलता, सन्ताप से भी आकण्ठ भरी।
जैसे-जैसे उम्र उसकी बढ़ती गई ,
बिटिया बन पिता की छाया में आई।
संस्कार, स्नेह, शिक्षा फिर उसने
उनके मन के अनुरूप पाई।
किशोरी बनने की सीढ़ियों पर चढ़ते
संग भाई की पैनी निगरानी पाई।
हो गई नवयुवती सुघड़ सुंदर जब
कन्यादान में पति को थमा दी कलाई।
उस घर के रिवाज़ थे कुछ अलग
इस घर के रिवाज़ भी मन से अपनाई।
अब ढल रहा उसके उम्र का सूरज
हाँफती है चलते हुए, सोती कि खाँसी आई।
घर के सबको होती है तब खीझ बड़ी
उनके जीवन में खलल मुझसे जो आई।
न जन्म अपने मन का ,न जीवन ही अपना
लगता स्त्रियाँ बन कठपुतली जग में आई।
पर तुम नहीं कठपुतली किसी की मान लो
माझी बन जीवन नैया की तुम्हें करनी है उतराई!