कभी पलटके देख मुसाफिर
कभी पलटके देख मुसाफिर
कभी पलटके देख मुसाफिर (सप्ताह २)
कभी पलट कर तो देख मुसाफिर
मुस्कुराता बचपन पीछे छूट गया है
भरी जवानी में कंधे तेरे झुक गए हैं
जिंदगी से जैसे तेरा नाता टूट गया है
कागज की कश्ती बारिश का पानी
बचपन की धुंधली यादों में धुल गए है
गुजरा वक़्त कभी लौट कर नहीं आता
चुपके से बुढ़ापे के कपाट खुल गए हैं
माना कि सब कुछ हासिल कर लिया है
गुनगुनी धूप के सुनहरे पल कहाँ से लाएगा
ख्वाहिशों की चादर तान गहरी नींद सोया
जो गुजर गया वह कल कहाँ से लाएगा
उलझनों के भूलभुलैया से निकल कर
खुद से आज़ सवाल कर कि तू कौन है
क्यों इतना चिंतित क्यों इतना व्यथित है
घर के अंधेरे कोने में बैठा क्यों तू मौन है
थकते नहीं हैं जो निर्विराम यहाँ चले हैं
वह भला क्या संभलेंगे जो कभी गिरे नहीं
कामयाब होने का हुनर सिखाने चले हैं
दुनियां की परेशानियों से जो कभी घिरे नहीं।