कभी-कभी
कभी-कभी
कभी-कभी यूं ही अचानक
न जाने क्यों, उदास हो जाता है मन
भारी लगने लगता है अपना ही तन
रोने की इच्छा होती है किन्तु निकल नहीं पाते आंसू
अन्दर ही अन्दर होती है घुटन सी
कुछ टूटता है, कुछ चटखता है
मरता है अंदर ही अंदर कुछ
पता नहीं क्यों
किन्तु स्त्री के मासिक चक्र की भांति
रक्त की बूंदें रिसती भीतर ही भीतर
रिसती तो हैं।