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कैलासा

कैलासा

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क्या वक़्त था क्या ज़माना

मौसम वो क्या फ़साना

न मैं रोक पाया खुद को

ऐसा बजा तराना ।


क्या धुन वो ऐसी गाई

हर एक को है भाई

ना फ़िक्र है किसी की

अंदाज़ वो सुनाना


लिए हाथ शंख गाता

सबको वही रिझाता

कैसे करूँ बयाँ मैं

लफ़्ज़ों का है बहाना

उसने किया मुकम्मल

वो राग वो ही गज़ल

न था होश अपना उसको

जग है बाकी वीराना !


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