काव्य कुसुम बिखराएँगे
काव्य कुसुम बिखराएँगे
दोहा -रोला छंद गढ़ेंगे, काव्य- कुसुम बिखराएँगे।
लेकर सरसी मुक्तक शंकर, मधुरिम गीत सुनाएँगे।
दसों दिशाएँ होगी हलचल, बजता ढोलक बाजा है।
लय छंदों के गीतों को सुन, नाचे निर्धन राजा है।।
फूल बिछा दो गली सड़क में, विद्वत कविवर आएँगे।
दोहा -रोला छंद गढ़ेंगे, काव्य -कुसुम बिखराएँगे।।
काव्यकलश की बहती गंगा, निश्छल निर्मल धारा है।
साधक होंगे छंद सभी के, हम सब का यह नारा है।।
घुमड़- घुमड़ कर आई बदरा, अब मल्हार सुनाएँगे।
दोहा -रोला छंद गढ़ेंगे, काव्य- कुसुम बिखराएँगे।।
समय यही है अब तो आओ, सरगम नया बनाएँगे।
हिंदी का अभिमान बढ़ाकर, महिमा उसकी गाएँगे।
सुंदर पावन रचना रचकर, ये जीवन महकाएँगे।
दोहा -रोला छंद गढ़ेंगे, काव्य -कुसुम बिखराएँगे।।
कविता हँसती गाँव -गाँव में, गली- गली मुस्काई है।
कलम चली है घर-घर देखो, शुभ सन्देशा लाई है।।
काव्यकलश की सबसे ऊंची, झंडा हम लहराएँगे।
दोहा -रोला छंद गढ़ेंगे, काव्य -कुसुम बिखराएँगे।।