कांटों से कलियों तक
कांटों से कलियों तक
जब से बोलने लगे वो
मेरे ख़िलाफ़ मेरे पीछे
तब से उनसे दोस्ती की
उम्मीद जगने लगी।
रोज़ रोज़ का मुलाकात
उनसे उनके बिना
ख़ैर ख़ुदासे आख़िर
मेरे ख़िलाफ़ तो हैं वो।
काँटों की पहरेदारी
गुलों को मंजूर अगर
चोट खाने की भूखा
लहू भी नब्ज़ मे मेरी।
आंखें चुराना उनकी
देखता हूँ चोर की तरह
चोर से चोरी करना
इतना आसान है क्या।
मुश्किल कुछ भी नहीं
मुमकिन तकलीफ के सिवाए
ज़हर का छोटी खुराक है ये
दवा जिसे कहते हो।
दवा दारू में फर्क क्या
ना मय ना मर्ज को मालूम
मर्जी की मालिक हो अगर
मैखाने की ख़ता क्या।
